मेरी मंजिल
मेरी मंजिल
प्रीत की ये मीत है जो, सदियों से चली आ रहीं
जीत के खोना हो सब तो, हैं हार ही मंजिल मेरी।
कश्तियां कितनी भी आयी, और तूफानों में बही
लकड़ी से कश्ती बने तो, हैं तैरना मंजिल मेरी।
जो मेरे थे यार- दोस्त वो, मेरे अब है ही नहीं
दोस्ती गर टूट जाएं तो, हैं दुश्मनी मंजिल मेरी।
इक परीक्षा का परिणाम, मेरा भविष्य है नहीं
यश सिर्फ इसमें ही हो तो, है अपयश मंजिल मेरी।
दंगे भड़का कर देखते, रहते यदि सब है कहीं
ऐसे भड़काऊ लोगो से, पंगा लेना मंजिल मेरी।
काम की सन्धि नहीं, तो सब खाली बैठे है कहीं
तो रोजगार उपलब्ध करना हैं यहीं मंजिल मेरी।
ना पैसों में ना खेल में, ना धर्म में ना गांव में
बस धूप में इक छांव होना हैं यहीं मंजिल मेरी।
ना तर्क करना ना वाद करना और नहीं उन्माद करना
बोलकर तुम्हे चोट देना हैं नहीं मंजिल मेरी।
अश्क ही यदि आ रहे और जख्मे अगर हैं बढ़ रहीं
तो मलहम लगाकर घाव भरना हैं यहीं मंजिल मेरी।
मेरी कविता और गजले, सिर्फ महफिल की रंगत नहीं
तालियां और वाहवा नहीं, दिल ही है मंजिल मेरी।
- अनाहूत
८ सितम्बर २०२०
०१:४५ (मध्यरात्र)
Comments
Post a Comment